19 मार्च 2025
आरबीआई बुलेटिन – मार्च 2025
आज भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने मासिक बुलेटिन का मार्च 2025 अंक जारी किया। बुलेटिन में चार भाषण, पाँच आलेख और वर्तमान आँकड़े शामिल हैं।
पाँच आलेख इस प्रकार हैं: I. अर्थव्यवस्था की स्थिति; II. मानसून का स्थानिक वितरण और कृषि उत्पादन; III. भारत के विप्रेषणों की बदलती गतिकी - भारत के विप्रेषण सर्वेक्षण के छठे दौर से अंतर्दृष्टि; IV. उत्सर्जन से आर्थिक संवृद्धि को अलग (डिकपलिंग) करना: एक एलएमडीआई अपघटन विश्लेषण; और V. बाजार पहुंच और आईएमएफ व्यवस्था: विश्व भर से साक्ष्य।
I. अर्थव्यवस्था की स्थिति
वैश्विक अर्थव्यवस्था की आघात सहनीयता की परीक्षा व्यापार दबाव में वृद्धि और टैरिफ के दायरे, समय और तीव्रता के बारे में अनिश्चितता की बढ़ती लहर द्वारा की जा रही है। वैश्विक वित्तीय बाजारों में अत्यधिक अस्थिरता उत्पन्न करने के साथ-साथ, इसने वैश्विक संवृद्धि में मंदी के बारे में आशंकाएँ भी उत्पन्न की हैं। इन चुनौतियों के बीच, जैसा कि कृषि क्षेत्र के मजबूत निष्पादन और उपभोग में सुधार से स्पष्ट है, भारतीय अर्थव्यवस्था आघात सहनीयता प्रदर्शित कर रही है। तथापि, अशांत बाह्य वातावरण की प्रतिध्वनि, निरंतर विदेशी पोर्टफोलियो बहिर्वाह के रूप में परिलक्षित हो रही है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत की समष्टि आर्थिक शक्ति, खाद्य कीमतों में और सुधार के कारण फरवरी 2025 में हेडलाइन सीपीआई मुद्रास्फीति में सात महीने के निचले स्तर 3.6 प्रतिशत तक की गिरावट से मजबूत हुई है।
II. मानसून का स्थानिक वितरण और कृषि उत्पादन
अभिनव नारायणन और हरेंद्र कुमार बेहरा द्वारा
इस आलेख में खरीफ फसलों के उत्पादन पर विभिन्न जिलों में वर्षा की स्थानिक भिन्नता के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि किसी विशेष अवधि में कम या अधिक वर्षा किस प्रकार विशिष्ट फसलों के उत्पादन को प्रभावित करती है।
मुख्य बातें:
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अत्यधिक या अपर्याप्त वर्षा जैसी चरम मौसम संबंधी घटनाओं के कारण फसलों को भारी नुकसान पहुंचता है, जिससे उत्पादन में बाधा उत्पन्न होती है, जिसके परिणामस्वरूप उपज में कमी आती है या उपज की गुणवत्ता कम हो जाती है।
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चरम मौसम की घटनाओं का समय महत्वपूर्ण है, क्योंकि फसल उत्पादन चक्र अलग-अलग होते हैं।
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जून और जुलाई के महीनों में अपर्याप्त वर्षा से अनाज और दालों के उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जबकि तिलहन फसलें, कटाई अवधि (अगस्त-सितंबर) के दौरान अत्यधिक वर्षा से विशेष रूप से प्रभावित होती हैं।
III. भारत के विप्रेषणों की बदलती गतिकी - भारत के विप्रेषण सर्वेक्षण के छठे दौर से अंतर्दृष्टि
धीरेंद्र गजभिए, सुजाता कुंडू, अलीशा जॉर्ज, ओंकार विन्हेरकर, युसरा अनीस, जितिन बेबी द्वारा
यह आलेख 2023-24 के लिए आयोजित भारत के विप्रेषण सर्वेक्षण के छठे दौर के परिणामों का विश्लेषण करता है। यह भारत में आवक विप्रेषण के विभिन्न आयामों, देश-वार विप्रेषण का स्रोत, विप्रेषण का राज्य-वार गंतव्य, विप्रेषण का लेन-देन-वार आकार, संचरण का प्रचलित तरीका, विप्रेषण भेजने की लागत और नकदी की तुलना में डिजिटल माध्यमों से हुए विप्रेषण के भाग को दर्शाता है।
मुख्य बातें:
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भारत में आवक विप्रेषण 2010-11 से 2023-24 के दौरान दोगुने से अधिक हो गए हैं और इस अवधि के दौरान यह बाहरी वित्तपोषण का एक स्थिर स्रोत रहा है। 2020-21 के दौरान महामारी के कारण संकुचन के बाद, महामारी के बाद की अवधि में भारत में आने वाले विप्रेषण में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई।
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सर्वेक्षण के परिणाम दर्शाते हैं कि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं से आवक विप्रेषण का हिस्सा बढ़ा है, जो 2023-24 में खाड़ी अर्थव्यवस्थाओं के हिस्से को पार कर गया, जो कुशल भारतीय प्रवासियों के प्रवास पैटर्न में बदलाव को दर्शाता है।
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महाराष्ट्र, उसके बाद केरल और तमिलनाडु, विप्रेषण के प्रमुख प्राप्तकर्ता बने हुए हैं।
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डिजिटलीकरण के कारण भारत में विप्रेषण भेजने की लागत में उल्लेखनीय कमी आई है, लेकिन यह 3 प्रतिशत के एसडीजी लक्ष्य से अधिक है।
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इसके अतिरिक्त, 2023-24 में धन अंतरण संचालकों द्वारा प्राप्त कुल विप्रेषण का औसतन 73.5 प्रतिशत डिजिटल मोड के माध्यम से था।
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इसके अलावा, फिनटेक कंपनियां सस्ती सीमापारीय विप्रेषण सेवाएं प्रदान करती हैं, जिससे विभिन्न विप्रेषण सेवा प्रदाताओं के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलता है।
IV. उत्सर्जन से आर्थिक संवृद्धि अलग (डिकपलिंग) करना: एक एलएमडीआई अपघटन विश्लेषण
मधुरेश कुमार, शोभित गोयल, मनु शर्मा, मुस्कान गर्ग द्वारा
यह आलेख लॉगरिदमिक मीन डिविसिया इंडेक्स (एलएमडीआई) अपघटन विधि का उपयोग करके 2012 से 2022 तक भारत के CO₂ उत्सर्जन वृद्धि के पीछे के चालकों की जांच करता है। यह कुल उत्सर्जन को मुख्य योगदान कारकों में विभाजित करता है, जिसमें जीडीपी संवृद्धि (गतिविधि प्रभाव), ऊर्जा दक्षता में सुधार (ऊर्जा तीव्रता प्रभाव), आर्थिक संरचना में बदलाव (संरचनात्मक प्रभाव), ईंधन की संरचना में परिवर्तन (ईंधन मिश्रण प्रभाव), और विद्युत उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा की बढ़ती हिस्सेदारी, जो विद्युत की कार्बन तीव्रता (उत्सर्जन कारक प्रभाव) को कम करती है, शामिल है।
मुख्य बातें:
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2012-22 के दौरान, ऊर्जा से संबंधित CO2 उत्सर्जन में 706 मिलियन टन की वृद्धि हुई। इसका मुख्य कारण आर्थिक संवृद्धि (+1073 मीट्रिक टन) थी, जबकि अर्थव्यवस्था के ईंधन मिश्रण में बदलाव (+78 मीट्रिक टन) का प्रभाव कम था। तथापि, ऊर्जा दक्षता में वृद्धि (-399 मीट्रिक टन), संरचनात्मक परिवर्तन (-15 मीट्रिक टन) और नवीकरणीय ऊर्जा के बढ़ते उपयोग के कारण विद्युत की उत्सर्जन तीव्रता में सुधार (-30 मीट्रिक टन) ने उत्सर्जन को कम करने में मदद की।
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भारत की ऊर्जा दक्षता में वार्षिक 1.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो वैश्विक औसत से अधिक है।
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भारत की संवृद्धि उत्सर्जन से अलग (डिकपल)हो गई, जिसका डिकपलिंग लोच 0.59 है, जो अन्य निम्न-मध्यम आय वाले देशों के बराबर है।
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पिछले दशक में नवीकरणीय ऊर्जा का उत्सर्जन में कमी पर छोटा लेकिन महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है, 2022-23 में कुल प्राथमिक ऊर्जा में सौर और पवन का योगदान 2.1 प्रतिशत रहा।
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आगे चलकर, नवीकरणीय ऊर्जा तेजी से जीवाश्म ईंधन की जगह लेने और उद्योगों में हरित हाइड्रोजन का उपयोग बढ़ने से उत्सर्जन कारक प्रभाव से अधिक प्रमुख भूमिका निभाने की आशा है।
V. बाजार पहुंच और आईएमएफ व्यवस्था: विश्व भर से साक्ष्य
श्रुति जोशी और पीएसएस विद्यासागर द्वारा
इस आलेख में 2000-2023 के दौरान विभिन्न देशों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से लिए गए ऋणों का विश्लेषण किया गया है तथा उन देशों, जिन्होंने आईएमएफ ऋण का सहारा लिया, के लिए बाजार पहुंच और आईएमएफ के ऋण पर निर्भरता के बीच नकारात्मक संबंध पाया गया है।
मुख्य बातें:
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2000-2023 के दौरान, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजारों और वित्तपोषण के वैकल्पिक स्रोतों तक उनकी सीमित पहुंच के कारण उभरती बाजार और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (ईएमडीई) की आईएमएफ संसाधनों पर निर्भरता बढ़ गई। तथापि, भारत और चीन सहित कई तेजी से बढ़ती बड़ी ईएमडीई को आईएमएफ ऋण का सहारा नहीं लेना पड़ा।
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संकट काल के दौरान, विशेष रूप से वैश्विक वित्तीय संकट और यूरो-जोन संकट के दौरान, कतिपय उन्नत अर्थव्यवस्थाओं ने भी सॉवरेन रेटिंग डाउनग्रेड होने से उनकी बाजार पहुंच कम होने के कारण आईएमएफ ऋण का सहारा लिया।
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जिन देशों ने आईएमएफ ऋण लिया, उनमें से जिन देशों को अधिक देश जोखिम प्रीमियम का सामना करना पड़ा, उन्होंने अधिक वित्तपोषण प्राप्त किया।
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क्षेत्रीय वित्तपोषण व्यवस्था (आरएफए) और स्वैप लाइनों जैसे वित्तपोषण के वैकल्पिक स्रोतों तक पहुंच से आईएमएफ ऋण पर निर्भरता कम हो जाती है।
बुलेटिन के आलेखों में व्यक्त विचार लेखकों के हैं और भारतीय रिज़र्व बैंक के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
(पुनीत पंचोली)
मुख्य महाप्रबंधक
प्रेस प्रकाशनी: 2024-2025/2418 |