18 अक्टूबर 2021
आरबीआई बुलेटिन - अक्टूबर 2021
भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने मासिक बुलेटिन का अक्टूबर 2021 का अंक जारी किया। बुलेटिन में गवर्नर का वक्तव्य, मौद्रिक नीति वक्तव्य, 2021-22 मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) का संकल्प 6-8 अक्टूबर 2021, मौद्रिक नीति रिपोर्ट - अक्टूबर 2021, पाँच भाषण, पाँच आलेख और वर्तमान सांख्यिकी शामिल हैं।
पाँच आलेख इस प्रकार हैं: I. अर्थव्यवस्था की स्थिति; II. क्या वित्तीय स्थिरता मौद्रिक नीति का एक लक्ष्य होना चाहिए? भारत से साक्ष्य; III. भौतिक पूँजी पर प्रतिलाभ: फर्म स्तर के डेटा से सबक; IV. नवीकरणीय ऊर्जा - मौन क्रांति; और V. कम प्रतिफल परिवेश और विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन।
I. अर्थव्यवस्था की स्थिति
बढ़ते वैश्विक जोखिमों के बीच, भारतीय अर्थव्यवस्था गति पकड़ रही है, हालांकि समुत्थान (रिकवरी) असमान है और मुश्किल से धीरे-धीरे बढ़ रहा है। टीकाकरण में तेजी, नए मामलों/मृत्यु दर में कमी और आवाजाही को सामान्य करने से आत्मविश्वास फिर से पैदा हुआ है। खरीफ कृषि उत्पादन के मजबूत प्रदर्शन और विनिर्माण एवं सेवाओं की बहाली से घरेलू मांग में मजबूती आ रही है और दूसरी ओर कुल आपूर्ति की स्थिति में सुधार हो रहा है। अपेक्षा से अधिक नरम खाद्य कीमतों ने हेडलाइन मुद्रास्फीति को घटा कर लक्ष्य के अधिक समीप ला दिया है।
II. क्या वित्तीय स्थिरता मौद्रिक नीति का एक लक्ष्य होना चाहिए? भारत से साक्ष्य
साहित्य इस बात पर विभाजित है कि क्या मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण वाले केंद्रीय बैंक वित्तीय स्थिरता को एक 'स्पष्ट' नीतिगत लक्ष्य के रूप में अपनाएं । वर्तमान आलेख में भारतीय संदर्भ में इस प्रश्न का प्रायोगिक मूल्यांकन किया गया है जहाँ वित्तीय स्थिरता मौद्रिक नीति का एक 'स्पष्ट' लक्ष्य नहीं है, लेकिन दोनों लक्ष्यों को एक साथ साधने के लिए समष्टि-विवेकपूर्ण नीतियां और ब्याज दर निर्णयों का समन्वय किया जाता है। आलेख के प्रमुख बिंदु नीचे दिए गए हैं:
प्रमुख बिंदु
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इस आलेख में, आवास, वाणिज्यिक अचल संपत्ति (सीआरई), उपभोक्ता ऋण और पूँजी बाजार जोखिम; ऋण की तुलना में मूल्य (एलटीवी) अनुपात और नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में मानक आस्तियों के लिए जोखिम भार और प्रावधान का प्रयोग करते हुए एक समग्र समष्टि-विवेकपूर्ण नीति (मैक्रोप्रूडेंशियल पॉलिसी) सूचकांक (एमपीपी) का निर्माण किया गया है।
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जून 1997 से मार्च 2020 की अवधि के लिए व्यापक आर्थिक चरों का उपयोग करते हुए एक प्रायोगिक विश्लेषण से पता चलता है कि मौद्रिक नीति मुद्रास्फीति और व्यापार चक्रों पर प्रभाव डालती तो जरूर है, लेकिन साथ ही, वित्तीय चक्रों को तीव्रता से प्रभावित नहीं करती है। वित्तीय चक्र ऋण (क्रेडिट) चक्रों से प्रभावित होते हैं, जो बदले में समष्टि-विवेकपूर्ण नीतियों से प्रभावित होते हैं। एमपीपी इंडेक्स को रिपो रेट के साथ रखने से पता चलता है कि भारत में समष्टि-विवेकपूर्ण नीतियां आम तौर पर मौद्रिक नीति के अनुरूप विकसित हुई हैं।
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लेख का निष्कर्ष है कि लचीली मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण (एफ़आईटी) को अपनाने के बाद भी, मौद्रिक और समष्टि-विवेकपूर्ण नीतियों के समन्वित प्रयोग की पद्धति से अर्थव्यवस्था में अच्छा लाभ मिला है।
III. भौतिक पूँजी पर प्रतिलाभ: फर्म स्तर के डेटा से सबक
उत्पादन में भौतिक पूँजी की प्रमुख भूमिका के कारण भौतिक पूँजी पर प्रतिलाभ (आरओपीसी) विनिर्माण में कीमतों के निर्धारण को मापने का एक महत्वपूर्ण मैट्रिक है। यह अध्ययन वर्ष 2017-18 के लिए फर्म स्तर के उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण (एएसआई) डेटा का उपयोग करके विभिन्न फर्म विशेषताओं जैसे आयु, स्थान, आकार, स्वामित्व के प्रकार, पूँजी गहनता और गतिविधि के प्रकार में औपचारिक विनिर्माण क्षेत्र में आरओपीसी में भिन्नता की पड़ताल करता है।
प्रमुख बिन्दु
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भारतीय औपचारिक विनिर्माण क्षेत्र का कुल आरओपीसी 19.5 प्रतिशत होने का अनुमान है जो अन्य विकासशील देशों में देखे गए प्रतिलाभ के साथ तुलनीय है।
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एमएसएमई श्रेणी में, फर्मों के आकार के साथ आरओपीसी बढ़ता है। बड़े फर्मों के लिए, इसकी उच्च पूँजी-गहनता के कारण इसमें कमी आई।
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सरकारी (सार्वजनिक) कंपनियों का आरओपीसी गैर-सरकारी (सार्वजनिक) कंपनियों की तुलना में थोड़ा अधिक है। फिर भी, गैर-सरकारी (निजी) फर्मों का औसत प्रतिलाभ सरकारी (निजी) फर्मों की तुलना में काफी अधिक है।
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आरओपीसी का फर्मों की आयु और नियोजित श्रम के साथ एक उल्टे यू-आकार का संबंध है, जबकि यह पूँजी की तीव्रता के साथ एकदिष्टत: (मोनोटोनीकली) घटता है।
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क्षेत्रवार, सिक्किम में फार्मा उद्योग और असम में पेट्रोलियम उद्योग के बहुत अधिक प्रतिलाभ के कारण उत्तर-पूर्व ने दूसरों से बेहतर प्रदर्शन किया। इन दो उद्योगों ने पूरे क्षेत्र के कुल आरओपीसी को ऊपर खींच लिया।
IV. नवीकरणीय ऊर्जा - मौन क्रांति
नवीकरणीय ऊर्जा (आरई) ने भारत के एक बिजली अधिशेष वाला देश बनने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह आलेख भारत की वर्तमान बिजली बाजार संरचना और बिजली मुद्रास्फीति में आरई की भूमिका की जाँच करता है। प्रयोगिक विश्लेषण से पता चलता है कि आरई स्रोतों के लिए उत्पादन लागत में निरंतर गिरावट थोक बिक्री और अल्पकालिक बाजारों में बिजली दरों पर अधोमुखी दबाव डाल रही है। इसका तर्क है कि एक अधिक हरित और कम लागत वाली अर्थव्यवस्था के लिए आरई के आश्वासनों के आरई विकास में हुई प्रगति की संभावना को साकार करने के लिए क्रॉस-सब्सिडी पर अंकुश, विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्कॉम्स) को पेश आ रही वित्तीय समस्या के त्वरित समाधान, विकेन्द्रीकृत उत्पादन व वितरण को बढ़ावा देने तथा नवोन्मेष के लिए एक वातावरण बनाने और हरित प्रौद्योगिकी को तेजी से अपनाने पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन आवश्यक है।
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प्रमुख बिन्दुसमग्र स्थापित क्षमता में आरई की हिस्सेदारी मार्च 2015 के अंत में 11.8 प्रतिशत से बढ़कर अगस्त 2021 के अंत में 37.9 प्रतिशत हो गई है। भारत सरकार ने नवीकरणीय बिजली उत्पादन के लिए वर्ष 2022 तक 175 गीगावाट स्थापित क्षमता का लक्ष्य निर्धारित किया है।
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प्रायोगिक विश्लेषण नवीकरणीय ऊर्जा और ऊर्जा बाजार के हाजिर कीमत, विद्युत के उत्पादक मूल्य (डबल्यूपीआई इलेक्ट्रिसिटी) और परंपरागत ऊर्जा के नीलामी मूल्यों के मध्य महत्त्वपूर्ण सकारात्मक संबंध दर्शाता है।
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जहाँ तक सीपीआई विद्युत का संबंध है, इन्हीं समाश्रय वर्गों (सेट ऑफ रिग्रेसर्स) को लेकर कोई सार्थक संबंध नहीं देखा गया। खुदरा बिजली शुल्कों की गणना की पद्धति, अंतर-क्षेत्रीय क्रॉस सब्सिडी और सीपीआई बिजली में घरेलू खपत को छोड़कर बिजली की खपत के अन्य खंडों को बाहर कर देने से इस परिणाम पर असर पड़ सकता है।
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वर्ष 2014 में भारत की प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 804.5 किलो वॉट प्रति घंटा थी, जो विश्व औसत 3132.8 किलो वॉट प्रति घंटा से बहुत कम है। नवीकरणीय ऊर्जा (आरई) सस्ती बिजली उपलब्ध कराकर आने वाले वर्षों में बढ़ी हुई मांग को पूरा कर सकती है।
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शुल्क संरचना के अविनियमन और संचरण व वितरण क्षतियों को कम करने में सफलता एवं प्रति-सहायकीकरण (क्रॉस-सब्सिडाइजेशन) से सक्षम कीमत निर्धारण को बढ़ावा मिल सकता है और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में अधिक निवेश आ सकता है।
V. निम्न प्रतिफल परिवेश और विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन
यह आलेख सांकेतिक प्रतिफल में गिरावट की प्रवृत्ति के प्रमुख चालकों और विदेशी मुद्रा भंडार के प्रबंधन के पारंपरिक तरीकों से परे देखने की संभावना पर प्रकाश डालता है, ताकि सुरक्षा और चलनिधि के लक्ष्यों को कमतर किए बिना पोर्टफोलियो प्रतिफल को बढ़ाया जा सके।
प्रमुख बिन्दु
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1980 के दशक की शुरुआत से ही उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में अल्पावधि और दीर्घकालिक ब्याज दरों में गिरावट की प्रवृत्ति देखी जा रही है। यह अति-निम्न ब्याज दर परिवेश उन्नत अर्थव्यवस्थाओं और वैश्विक वित्तीय बाजारों में संरचनात्मक परिवर्तनों, विशेषत: सुसंचालित निम्न मुद्रास्फीति/प्रत्याशित मुद्रास्फीति और पिछले 3 से 4 दशकों में संतुलन वास्तविक ब्याज दरों में गिरावट की प्रवृत्ति का प्रतिबिंब है।
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इस निम्न प्रतिफल के परिवेश ने सामान्यत: आस्ति प्रबंधकों के लिए और विशेषत: प्रारक्षित निधि प्रबंधक (रिज़र्व मैनेजर्स) के लिए यथोचित प्रतिफल उत्पन्न करना दुःसाध्य बना दिया है। निम्न प्रतिफल के विभिन्न संरचनात्मक कारणों के बने रहने की संभावना के आलोक में, यह आवश्यक है कि प्रतिफल को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए रिज़र्व मैनेजर्स प्रारक्षित निधि (रिज़र्व्स) के प्रबंधन के लिए पारंपरिक दृष्टिकोण से परे देखें।
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पोर्टफोलियो की अवधि बढ़ाना, नए उत्पादों/ आस्ति वर्गों में निवेश, स्वर्ण का सक्रिय प्रबंधन और नए बाजारों में निवेश विदेशी मुद्रा भंडार पर प्रतिफल बढ़ाने के कुछ वैकल्पिक तरीके हो सकते हैं। तथापि जोखिम क्षुधा, निवेश प्राथमिकताओं, कौशल समूह और अलग-अलग संस्थाओं की परिचालनगत क्षमताओं के अनुरूप रणनीति का चुनाव करने की आवश्यकता होगी।
(योगेश दयाल)
मुख्य महाप्रबंधक
प्रेस प्रकाशनी: 2021-2022/1062 |